संथाल समाज में आज भी कायम है दूल्हे- दुल्हन के पालकी पर जाने की परंपरा, ग्रामीण क्षेत्रों में में बहुतायत संख्या में दिख रहा देवदास फिल्म का दृश्य
कार्तिक कुमार
पाकुड़: बदलते जमाने के बावजूद संथाल समाज में आज भी शादी विवाह समारोह में पालकी की पहचान बरकरार है। आधुनिकता के दौर में लोग चमचमाती चार पहियों पर सवार होकर शादी रचाने पहुंचते हैं। लेकिन झारखंड राज्य के संथाल परगना के संथाल समाज में आज भी पालकी पर सवार होकर दूल्हा शादी रचाने पहुंचता फिर दूल्हा दुल्हन को पालकी पर लेकर कहार पैदल पैदल चलते हुए दूल्हा के घर पहुंचते हैं.
इन दिनों संथाल समाज में भी शादी विवाह का दौर चल रहा है।
संथाल गांव में अक्सर दिख रहा देवदास फिल्म का नजारा
दूल्हा पालकी में बैठकर शादी रचाने जाते की दृश्य देखकर बरबस देवदास फिल्म की याद ताजा हो उठती है। पालकी को चार कहार मिलकर कंधे के सहारे पैदल दूरी तय कर लड़की के घर वाले के यहां पहुंच शादी की रस्म पूरा होने के बाद फिर दूल्हा दुल्हन को साथ पालकी में ही बैठाकर लाने की परंपरा आज भी संथाल इलाकों में बहुत ही मजबूती से कायम है.
पांच से छह हजार भाड़े में तय होता है पालकी
संथाल समाज के साफा होड़ में खासकर पालकी पर शादी रचाने की परंपरा है। पालकी किराया पर ली जाती है। पालकी को ढोने वाले कहार छह की संख्या में होते हैं जो बारी-बारी से पालकी को ढोते हैं। पालकी और कहार का भाड़ा एवं मजदूरी पांच से छह हजार अथवा दूरी पर जाती है। पालकी और कहार की मजदूरी लड़का पक्ष को देना पड़ता है।
इस संबंध में शिक्षक हिरोसिल मुर्मू बताते है की पालकी तीन प्रकार की होती हैं। एक खुरखुरी जो मंदिर नुमा होता है दूसरा पालकी। मुर्मू बताते हैं कि संथाल विद्रोह के महानायक सिद्धू ,कानू के वंशज परिवार में पालकी पर ही शादी रचाने की परंपरा है. संथाल समाज के दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करते हुए आज भी पालकी पर चढ़कर शादी रचाते है और इस तरह संथाल समाज ने पालकी की परंपरा को बहुत ही शिद्दत के साथ जीवित रखा है.