दिनकर की कविताओं ने कैसे IPS विकास वैभव की बदल दी ज़िन्दगी, जानिए उन्हीं की जुबानी
आज राष्ट्रकवि दिनकर का जन्मदिवस है। आज उनकी कृति को याद करते हुए भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी एवं वर्तमान में आतंकवाद निरोधी दस्ता (ATS) के डीआईजी विकास वैभव ने लिखा है कि कैसे दिनकर की कविताओं ने उनके जीवन में बदलाव लाया, जानिए उन्हीं की जुबानी।
“वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है;
थक कर बैठ गये क्या भाई ! मंज़िल दूर नहीं है ।”
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जयंती (23 सितम्बर) के अवसर पर उनके द्वारा रचित कविता “आशा का दीपक” की उन प्रेरणास्पद पंक्तियों को पुनः साझा कर रहा हूँ जिन्होंने विद्यार्थी जीवन की विषम परिस्थितियों एवं द्वंदो से जूझते समय मुझे अत्यंत प्रेरित किया था तथा वांछित सफलता की दिशा में सतत् अग्रसर किया था। संघर्ष के उन दिनों में इन पंक्तियों को मैंने स्वयं कागज पर हस्तलिखित कर अपने पठन स्थल के निकट दीवार पर चिपका रखा था और सदैव प्रेरणा ग्रहण किया करता था। मेरी सफलता में दिनकर की इन पंक्तियों का अत्यधिक योगदान रहा है। सर्वशक्तिमान से प्रार्थना है कि “आशा का दीपक” सभी को प्रेरित करे और जीवन में इच्छित तथा दूरदर्शी लक्ष्य प्राप्ति के निमित्त कर्तव्य पथ पर अविचल रूप में अग्रसर करता रहे।
“वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है;
थक कर बैठ गये क्या भाई ! मंज़िल दूर नहीं है।
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से;
चमक रहे पीछे मुड़ देखो, चरण-चिन्ह जगमग से।
शुरू हुई आराध्य भूमि यह, क्लांति नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से ?
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;
थक कर बैठ गये क्या भाई ! मंज़िल दूर नहीं है।
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का;
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई ! मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा;
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही;
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई ! मंज़िल दूर नहीं है।”
(रामधारी सिंह दिनकर)
राष्ट्रकवि के सम्मान में 2017 में मेरे द्वारा समर्पित कविता के अंश भी पुनः साझा कर रहा हूँ ।
मिथिला और दिनकर (मेरी प्रथम कविता)
सरस्वती तट से प्रसार हुआ, चेतन भारत विस्तार हुआ।
वेदों ने अंत जहाँ पाया, मिथिला क्षेत्र वह कहलाया।
याज्ञवल्क्य जहाँ प्राचीन हुए, मंडन वहीं समीचीन हुए।
विद्यापति को जन्म दिया, जनक राज पर गर्व किया।
ज्ञान प्रकाश उत्कर्षित हुआ, विश्व लाभान्वित हुआ।
क्षेत्र अत्यंत हो हर्षित, संपूर्ण भारत में था पुलकित।
चूंकि परिवर्तन है ऋत, मिथिला भी हुई कालविकृत।
काल द्वारा हुई ग्रसित, भला किसे था यह जनित।
ग्रसता था परतंत्र त्रास, बौद्धिक परंपरा हुई सशंकित।
पूर्व विरासत पर गौरवान्वित, थी भविष्य प्रति चिंतित।
आशा गंगा पर कर केंद्रित, सपूत दर्शन को लालायित।
बौद्धिक परंपरा को बढाना था, पूर्वज ऋण चुकाना था।
मंदाकिनी तट पर उदय, दिनकर बना राष्ट्रीय हृदय।
राष्ट्र ने भी शीघ्र पहचाना, राष्ट्रकवि नाम गया जाना।
मिथिला हुई पुनः चेतन, भारत को अंतर प्राण मिला।
संस्कृति अध्याय हुआ रचित, क्षेत्र नव गौरवान्वित।
दिनकर ने किया काल दर्शन, शब्दरूप में नव सृजन।
रश्मिरथी को सम्मान मिला, काल दोष से त्राण मिला।
त्याग युद्धिष्ठिर धर्म को, गदा-गाँडीव का ध्यान मिला।
सिमरिया में पूछे मंदाकिनी, दिनकर क्या अब मौन है।
चिंतित भारत भविष्य पर, मिथिला क्या पुनः गौण है ।
दिनकर है जीवित स्मृति, पर प्रेरणा लेता कौन है।
यदि राष्ट्रकवि का है सम्मान, नहीं केवल पुष्प दान।
नव युवा से आशान्वित, भारत मांगे स्वार्थ बलिदान।
नव सृजन के निमित्त, दिनकर मार्ग मांगे अग्रप्रस्थान।
(विकास वैभव)
जयंती पर स्मरण करते हुए महान राष्ट्रकवि के प्रति शत शत नमन अर्पित करता हूँ !
जय हिन्द !