अप्प दीपो भव 23
मामला चाहे अच्छा हो या बुरा। लेनदेन की क्रिया में दो पक्षों की सक्रिय भागीदारी होती है। एक पक्ष कुछ देता है और दूसरा पक्ष उसे स्वीकार करता है। ऐसा होने पर ही लेनदेन की प्रक्रिया पूरी होती है। यदि एक पक्ष कुछ दे और दूसरा पक्ष लेने से मना कर दे तो फिर लेनदेन की प्रक्रिया अधूरी रह जाती है। हम जो कुछ भी दूसरों से प्राप्त कर रहे हैं, उसमें हमारी भी सहमति होती है। इसलिए लेनदेन की किसी भी प्रक्रिया के लिए सिर्फ दूसरों को दोषी देने से कोई फायदा नहीं। उस प्रक्रिया में अपनी भागीदारी पर चिंतन अधिक जरूरी है।
महात्मा बुद्ध एक बार एक ऐसे गांव से जा रहे थे जहां के लोग अपने धर्मगुरु के प्रभाव में रहने के कारण उन्हें पसंद नहीं करते थे। उस गांव से जब वह गुजर रहे थे तो अनेक लोगों ने उनकी निंदा की, उन्हें अपशब्द कहे और गालियां दी। महात्मा बुद्ध खामोशी से अपना सफ़र तय करते रहे। उस गांव के लोगों के कटु व्यवहार का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। सबसे अंत में वह धर्मगुरु मिले जिनके प्रभाव में आकर गांव वाले महात्मा बुद्ध के साथ गलत व्यवहार कर रहे थे। उन्होंने पूछा कि गांव वालों ने आपकी इतनी निंदा की, आपको इतनी गालियां दी। फिर भी आप क्रोधित नहीं हुए? क्या कारण है? महात्मा बुद्ध मुस्कुराए और बोले- कुछ समय पूर्व मैं एक दूसरे गांव से गुजरा था। वहां के लोगों ने मेरे लिए छप्पन किस्म के पकवान जिसमें अनेक तरह की मिठाइयां भी शामिल थी, का प्रबंध किया था। उन्होंने सब कुछ मुझे देना चाहा। मेरा पेट भरा था। मैंने कुछ नहीं लिया। तो वह पकवान और मिठाइयां कहां रह गईं? उन्हीं के पास ना जो मुझे देने की कोशिश कर रहे थे। इस गांव में मुझे निंदा और तिरस्कार देने का प्रयास किया गया। मैंने उन्हें ग्रहण नहीं किया है। वे सब यहीं रह गए हैं और मैं अपने सफ़र पर आगे निकल गया हूं। इन बातों से उस धर्मगुरु की आंखें खुल गई और उन्होंने महात्मा बुद्ध से माफी मांगी।
हमारे जीवन में भी ऐसा ही होता है। यदि किसी दूसरे के व्यवहार से हमें क्रोध आता है। यदि किसी और के व्यवहार से हमें घृणा होती है। यदि किसी और की बात सुन हम झगड़ा करने पर उतारू हो जाते हैं तो फिर उसके लिए किसी और को दोषी ठहराना उचित नहीं। क्रोध, घृणा और झगड़ा करने की भावना जब हमारे मन में होती है तभी हम किसी के उकसाने या गलती पर क्रोध, घृणा या झगड़ा करते हैं। यदि आपके साथ भी ऐसा हो रहा हो तो आत्ममंथन आवश्यक है। संभव है कि क्रोध की उत्पत्ति के लिए कोई वाजिब कारण मौजूद हो, लेकिन उसे स्वीकार तो हमने ही किया। भले ही किसी और के घटिया कृत्य से हमारे मन में घृणा के भाव ने जन्म लिया, पर हमारा योगदान तो उसमें रहा ही। स्मरण रहे कि ताली कभी भी एक हाथ से नहीं बजती। दूसरा हाथ का योगदान चाहे कितना ही कम हो, दोनों हाथों के मिलन से ही आवाज निकलती है। किसी का देना तभी पूर्ण होता है जब हम उसे लेते हैं। लोभ, क्रोध, घृणा, कामुकता और मोह जैसी भावनाएं यदि हम लेने से इनकार कर दें, तो दूसरे लोग चाह कर भी हमें दे नहीं पाएंगे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ भी एक बार ऐसा ही हुआ था। जहाज से वह कहीं जा रहे थे। उसी जहाज में एक अंग्रेज भी सफ़र कर रहा था। उसे गांधीजी की राजनीतिक गतिविधियां पसंद नहीं थी। वह गांधी जी को ब्रिटिश राज का दुश्मन मानता था। उस अंग्रेज ने कागज के कई पन्नों पर तरह-तरह की गालियां लिख कर महात्मा गांधी के पास भिजवा दी । महात्मा गांधी ने बड़े ही सहज भाव से कागज के पन्नों में लगे पिन को निकाल कर रख लिया और फिर कागज के सभी पन्नों को उस अंग्रेज के पास वापस भिजवा दिया। पहले पन्ने पर लिख भी दिया- मुझे इन सब चीजों की जरूरत नहीं। इन्हें आप अपने पास ही रख लीजिए। जाहिर है महात्मा गांधी ने उस अंग्रेज की गालियों का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। गालियों को लेकर किसी प्रकार का झगड़ा नहीं किया। बस उन गालियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। गालियों के लेनेदेन की प्रक्रिया को गांधी जी ने पूर्ण ही नहीं होने दिया। उस अंग्रेज व्यक्ति की घृणा उसके पास रह गई और गांधी जी के मन की शांति और प्रसन्नता उनके साथ रह गई।
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