
-विकास वैभव (भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी। फिलहाल बिहार सरकार के गृह विभाग में विशेष सचिव के पद पर पदस्थापित हैं।)
“राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका” तथा “सफलता के सूत्रों” समेत अनेक विषयों पर भौतिक समेत डिजिटल माध्यमों से लंबे समय से बिहार के विभिन्न क्षेत्रों के युवाओं से वार्ता करता रहा हूं, जिसके विवरण सोशल मीडिया पर भी समय-समय पर साझा करता रहा हूं। इस ‘बिहार दिवस’ पर जब अपनी अवधारणा को और स्पष्ट करते हुए मैंने आह्वान स्वरूप “Let’s Inspire Bihar !” शीर्षक का प्रयोग एक हैशटैग #LetsInspireBihar के साथ किया, तब से ही अनेक युवा साथी इसके संदर्भ में अपनी जिज्ञासाओं को व्यक्त करते रहे हैं। अतः आज इसके संदर्भ में आवश्यक विवरण आपके साथ साझा करना चाहता हूं।
आप स्वयं से यह प्रश्न करें कि क्या हमें यह स्मरण नहीं है कि बिहार ही ज्ञान की वह भूमि है जहां वेदों ने भी वेदांत रूपी उत्कर्ष को प्राप्त किया तथा ज्ञान के प्राचीन बौद्धिक परंपरा की जब अभिवृद्धि हुई तब इसी भूमि ने बौद्ध और जैन धर्मों के दर्शन सहित अनेक तत्वों एवं सिद्धांतों के जन्म के साथ नालंदा एवं विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों की स्थापना देखी। जहां ज्ञान की ऐसी अद्भुत प्रेरणा रही, वहां शौर्य का परिलक्षित होना भी स्वाभाविक ही था और इसी कारण इतिहास स्वयं साक्षी है कि कभी बिहार से ही संपूर्ण अखंड भारत का शासन संचालित था और वह भी सशक्त एवं प्रबल रूप में। उद्मिता की इस प्राचीन भूमि ने ही ऐतिहासिक काल में ऐसी प्रेरणा का संचार किया जिसके कारण दक्षिण पूर्वी ऐशिया के नगरों तथा यहां तक कि राष्ट्रों का भी नामकरण भी इसी भूमि के प्रेरणादायक नगरों के नामों पर होने लगे जिसका सबसे सशक्त उदाहरण वियतनाम है जो चंपा (वर्तमान भागलपुर, बिहार) के ही नाम से लगभग 1500 वर्षों तक संपूर्ण विश्व में जाना गया।
यदि ऐसे प्रश्नों का उत्तर स्वीकारोत्मक है, तो बस विचार कीजिए कि वैसे सामर्थ्यवान यशस्वी पूर्वजों के ही हम वंशज क्या वर्तमान में भारत के उज्ज्वलतम भविष्य के निमित्त अपना सकारात्मक योगदान समर्पित कर पा रहे हैं ?
लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में रहे यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने अपने ग्रंथ इंडिका में तत्कालीन पाटलिपुत्र को उस समय के विश्व के सर्वश्रेष्ठ नगर के रूप में वर्णित किया गया था। आप कल्पना कीजिए कि यदि उस समय किसी पाटलिपुत्र निवासी से 2500 वर्ष पश्चात पाटलिपुत्र के स्वरूप के संबंध में पूछा जाता तो भला किस प्रकार के आशान्वित उत्तर मिल रहते और क्यों वह स्वाभाविक भी प्रतीत होते। परंतु वर्तमान परिदृश्य में जब भी भविष्यात्मक संभावनाओं के विषयों में बिहार के युवाओं से वार्ता होती है, तब ऐसी अनुभूति क्यों होती है कि कहीं न कहीं सर्वत्र एक प्रकार की निराशा व्याप्त हो रही है और वर्तमान एवं भविष्य के संबंध में नकारात्मक विचारों की स्थापना भी युवाओं के मध्य हो रही है जो भारत के उज्ज्वलतम भविष्य हेतु सर्वथा अनुचित है। जिस भूमि ने प्राचीनतम काल में ही ऐसे कीर्तिमानों को प्राप्त किया था, यदि उनकी स्वाभाविक प्राकृतिक अभिवृद्धि भी हुई रहती तो निश्चित ही वर्तमान का स्वरूप अत्यंत भिन्न रहता और निश्चित ही यदि भविष्य की संभावनाओं के संबंध में वर्तमान में प्रश्न किए जाते तो उनके उत्तरों में समाहित आशावादिता के भावों में कोई कमी नहीं रही होती। कालांतर में ऐसा क्या होता गया जिसके कारण जो आशावादिता उस काल में स्पष्टता के साथ परिलक्षित होती थी, वह आज के युवाओं से यत्न सहित प्रश्न करने पर भी दर्शित नहीं होती? आखिर ऐसा क्यों है कि जिस क्षेत्र में कभी संपूर्ण विश्व के विद्वान अध्ययन हेतु दुर्गम मार्गों से सुदूर यात्राएं कर पहुँचने हेतु लालायित रहते थे, वहीं के विद्यार्थी आज परिश्रम एवं पुरुषार्थ के मार्गों से कई अवसरों पर विच्छिन्न प्रतीत होते दिखते हैं तथा अधिकांशतः अन्य क्षेत्रों में अध्ययन एवं जीवनयापन हेतु प्रयासरत रहते हैं?
व्याप्त हो रही निराशा के प्रतिकार हेतु यह चिंतन करना आवश्यक होगा कि यदि स्वाभाविक उत्कर्ष की प्राकृतिक परंपरा बाधित हुई और जैसी कल्पना कभी रही होगी, वैसा क्यों नहीं हो सका! ऐतिहासिक भूमि के स्वाभाविक प्राकृतिक विकास की परंपरा से अत्यंत भिन्न ऐसी अप्राकृतिक वर्तमान परिस्थितियों के प्रादुर्भाव के कारणों पर चिंतन करने से ही समाधान मिलेंगे चूंकि भूमि वही है, उर्जा भी वही है और इसमें भला कहां संदेह है कि हम उन्हीं यशस्वी पूर्वजों के वंशज हैं जिनकी प्रेरणा आज भी मन को उद्वेलित करती है और कहती है कि यदि संकल्प सुदृढ़ हो तो इच्छित परिवर्तन अपने माध्यम स्वतः तय कर लेते हैं।
यदि हम इतिहास में प्राप्त उत्कर्ष के कारणों पर चिंतन करेंगे तो पाएंगे कि हमारे पूर्वजों की सोच अत्यंत बृहत् थी जो लघुवादों से विभिन्न थी। उर्जा के साथ जिज्ञासा तो हमारे पूर्वजों की ऐसी थी जो सामान्य भौतिक ज्ञान से संतुष्ट होने वाली नहीं थी तथा सत्य के वास्तविक स्वरूप को जानना चाहती थी जिसके कारण ज्ञान परंपरा के उत्कर्ष को समाहित किए उपनिषदों की दृष्टि संभव हो सकी। यदि भूमि के ऐतिहासिक शौर्य के कारणों पर हम चिंतन करें तो वहां भी बृहत्ता के लक्षण तब स्पष्ट होते हैं जब हम महाजनपदों के उदय के क्रम में पाटलिपुत्र में महापद्मनंद के राज्यारोहण का स्मरण करते हैं चूंकि जिस काल में अन्य जनपदों में जहां पूर्व से स्थापित शाशक वर्ग के अतिरिक्त किसी अन्य वर्ग से सम्बद्ध शासक की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, मगध में केवल सामर्थ्य को ही कुशल शासकों हेतु उपयुक्त लक्षणों के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई थी। ऐसे चिंतन के कारण ही मगध का सबसे शक्तिशाली महाजनपद के रूप में उदय हुआ जिसने कालांतर में साम्राज्य का रूप ग्रहण कर लिया। उत्कृष्ट चिंतन के कारण जहां राजतंत्र के रूप में मगध का उदय हुआ, वहीं वैशाली में गणतंत्र की स्थापना भी हुई। यदि कालांतर में ऐसे शौर्य का क्षय हुआ तो उसके कारण शस्त्र और शास्त्र में समन्वय का अभाव ही रहा चूंकि इतिहास स्वयं साक्षी रहा है कि भले ही शास्त्रीय ज्ञान अपने चरम उत्कर्ष पर क्यों न हो, यदि शस्त्रों के सामर्थ्य में कमी आती है तो उत्कृष्ट शास्त्र भी नष्ट हो जाते हैं।
यदि कालांतर में हमारा अपेक्षाकृत विकास नहीं हुआ और यदि हम पूर्व का स्मरण करते हुए वर्तमान में वैसा तारतम्य अनुभव नहीं करते तो इसका कारण कहीं न कहीं समय के साथ लघुवादों अथवा अतिवादों से ग्रसित होना ही रहा है अन्यथा जिस भूमि ने इतिहास के उस काल में कभी महापद्मनंद को शाशक के रूप में सहर्ष स्वीकार जन्म विशेष के लिए नहीं परंतु उनकी क्षमताओं पर विचारण के उपरांत किया था, उसके उज्ज्वलतम भविष्य में भला संदेह कहां था।
यदि वर्तमान में हम विकास में अन्य क्षेत्रों से कहीं पिछड़े हैं और अपने भविष्य को उज्ज्वलतम देखना चाहते हैं तो आवश्यकता केवल और केवल अपने उन यशस्वी पूर्वजों का स्मरण करते हुए लघुवादों यथा जातिवाद, संप्रदायवाद इत्यादि से उपर उठकर राज्य एवं राष्ट्रहित में बृहतर चिंतन के साथ भविष्यात्मक दृष्टिकोण को मन में स्थापित करते हुए निज सामर्थ्यानुसार आंशिक ही सही परंतु निस्वार्थ सामाजिक योगदान अवश्य समर्पित करना होगा। आवश्यकता एक वैचारिक क्रांति की है जो युवाओं के मध्य प्रसारित हो और जो भविष्य निर्माण के निमित्त संगठित रूप में संकल्पित करे। परिवर्तन ही ऋत है! आवश्यकता आशावादिता के साथ आगे बढ़ने की है। जिस भूमि ने वैदिक काल से ही गार्गी वाचक्नवी एवं मैत्रेयी जैसी विदुषियों को नारी में भी समाहित विद्वता का प्रतिनिधित्व करते देखा हो, उसका भविष्य भला उज्ज्वलतम क्यों न हो।
अब यदि इस पर चर्चा करें कि “Let’s Inspire Bihar !” के अंतर्गत करना क्या है तो वह भी स्पष्ट करता हूं :-
“ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते !
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वसिष्यते !!”
को अनेक अवसरों पर उद्धृत किया है जिसमें यह वर्णन मिलता है कि पूर्ण को खंडित करने पर भी हर खंड पूर्ण ही रहता है और पुनः पूर्ण में ही विलीन हो जाता है; अर्थात् हर आत्मा जो परमात्मा का ही अंशरूप है उसमें उसके सभी गुण समाहित हैं। ऐसे में युवा मन में अपने सामर्थ्य के प्रति किसी प्रकार का संदेह न हो इसके लिए यह अनुभूति आवश्यक है कि ईश्वर (पूर्ण) की वह असीम शक्ति सभी के अंदर पूर्णतः समाहित है और सदैव सही मार्गदर्शन हेतु तत्त्पर भी है। ऐसे में कहीं और न देखकर यदि हम एकाग्रचित्त होकर गहन आत्मचिंतन करेंगे तो सभी के लिए स्वयं मार्गदर्शक तथा इच्छित परिवर्तन के प्रबल वाहक बन जाऐंगे।
भविष्य परिवर्तन के निमित्त युवाओं द्वारा संकल्पित सकारात्मक चिंतन एवं योगदान ही बिहार के उज्ज्वलतम भविष्य की दिशा स्थापित करने का एकमात्र विकल्प है। इतिहास की प्रेरणा में ऐसी अद्भुत शक्ति समाहित है जो बिहार समेत संपूर्ण भारतवर्ष के भविष्य को परिवर्तित करने की क्षमता रखती है। मन भविष्यात्मक दृष्टिकोण के निमित्त विशेषकर युवाओ से स्वरचित पंक्तियों के माध्यम से आह्वान करना चाहता है –
“पूर्व प्रेरणा करे पुकार, आओ मिलकर गढ़ें नव बिहार।
नव चिंतन नव हो व्यवहार, लघु वादों से मुक्त हो संसार।
ज्ञान परंपरा का विस्तार, दीर्घ प्रभाव का सतत् प्रसार।
बृहतर चिंतन सह मूल्यों पर, आधारित युवा करें विचार।”
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