शख्सियत

पं. दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि पर विशेष

Special Article : Rishikesh Narayan

पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक भारतीय विचारक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, राजनीतिज्ञ तथा पत्रकार थे। उऩ्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी तथा भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे।

दीनदयाल उपाध्याय का बचपन

पंडितजी की बाल्यावस्था अत्यंत दुःखपूर्ण थी। पहले नासमझी की उम्र में पिताजी का देहावसान हुआ, उसके बाद साढ़े छह वर्ष की आयु में माता भी चल बसी। मामा-मामी ने उनका पालन पोषण किया। उनकी शिक्षा का दायित्व भी निभाया। कुछ लोगों को बाल्यावस्था में उठाए गए दुखों को बार-बार उजागर करने की आदत पड़ जाती है साथ ही भविष्य में अधिकतमसुख प्राप्त करने की इच्छा भी जागृत हो जाती है। ऐसे लोग स्वकेंद्रित होते हैं, अपने सुख के अलावा उन्हें बाकी दुनिया से कोई लेना देना नहीं होता। परन्तु पंडितजी इस श्रेणी के नहीं थे।

अपने से ज्यादा दूसरों के दुखों की थी चिंता

उन्होंने अपने दुखों को कभी उजागर नहीं किया। अपने भूतकाल के विषय में वे कभी बात ही नहीं करते थे। खुद के दुखों को भूल कर वे समाज के दुख की चिंता करने लगे। संघ से उनका सम्पर्क हुआ और कुछ वर्षों में ही वे प्रचारक बन गए। जिस समय वे प्रचारक बने उसी समय मन और बुद्धि से उन्होंने संकल्प लिया कि यह पूरा जीवन राष्ट्रकार्य के लिए तथा संघ कार्य के लिए समर्पित करना है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय संघमय हो गए। संघ के स्वयंसेवकों के लिए जीवंत आदर्श बन गए।

एकात्म मानववाद का आधार है सहिष्णुता

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म सामाजिक जीवन, एकात्म राजनीतिक जीवन, एकात्म आर्थिक जीवन खड़ा करने का लक्ष्य देश के सामने रखा। इस सिद्धांत का एक वैश्विक आयाम है। यदि दुनिया के झगडे, रक्तपात को रोकना है जो एकात्म मानव जीवन का एक आदर्श दुनिया के सामने रखना होगा। मनुष्य के समक्ष विकास हेतु चार पुरुषार्थ आदर्श रूप में हैं। मानव के सर्वागीण विकास हेतु इन चारों पक्षों का विकास आवश्यक है। इन पक्षों के सर्वागीण विकास हेतु भारतीय संस्कृति ने चार पुरुषार्थों को महत्वपूर्ण माना है। ये सभी पुरुषार्थ एक-दूसरे से पृथक नहीं बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। ये चारों पुरुषार्थ व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक आवश्यकताओं को पूर्ण करता है। व्यक्ति की आवश्यकताओं तथा पुरुषार्थ में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। साथ ही ये चारों पुरुषार्थ व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूर्ण करता है।
राष्ट्र को किस प्रकार सुखी बनाया जा सकता है, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इस पर लम्बे समय तक गहन विचार किया और देश को दिशा दिखाई। इसे ही हम ‘एकात्म मानव दर्शन’ कहते हैं। यह आधुनिक काल का हिन्दू दर्शन है। हिन्दू दर्शन कभी भी मुट्ठीभर लोगों का विचार नहीं करता। वह हमेशा ही वैश्विक विचार करता है। इस दर्शन को हम चाहे तो वेदांत कहें, बुद्ध दर्शन कहें, जैन दर्शन कहें या नानक दर्शन कहें। प्रत्येक दर्शन मनुष्य को मनुष्य मानकर विचार करता है।

गरीबी खत्म करने पर जोर दिया

समाज में गरीबी रहती है, गरिबी के असंख्य कारण हैं। विशेषज्ञ कहते है कि अनुत्पादक कृषि, कृषि पर अतिरिक्त मानवभार और उद्योगधंधों का अभाव, पारम्परिक उद्योगों की समाप्ति, सम्पत्ति का केन्द्रीकरण, शिक्षा का अभाव आदि गरीबी के कारण हैं। पंडितजी स्वयंम् को गरीब के साथ जोड़ते हैं। उसके साथ तादात्म्य बना लेते हैं। उनके जीवन में इस प्रकार के असंख्य उदाहरण हैं। पहनने की धोती उतने दिन तक उपयोग में लाते जब तक वह फट न जाए। उसे भी वे हाथ से सिलाई कर चला लेते। एसे अवसर पर जब पंडितजी किसी कार्यकर्ता घर रुकते तो वह कार्यकर्ता नहाने के स्थान पर एक नई धोती रख देता। और पंडितजी कहते अरे वह पुरानी धोती क्यों निकाल ली अभी दो महिना और उपयोग में आती। पैर की चप्पल भीं घिस जाती पर पंडितजी उसका उपयोग करते रहते। ‘‘दीन दुखियों के लिये भी, अपार करुणाधार मन में’’ दीनदयाल जी की यही मानसिकता थी।

यही कारण था कि गरीबी दूर होनी चाहिए इस विषय पर उनका चिंतन केवल किताबी नहीं था, वरन गरीबी के साथ तादात्म्य से उत्पन्न चिंतन था। वे कहा करते ‘‘जो कमाएगा वह खाएगा यह ठीक नही, जो कमाएगा वह खिलाएगा।’’ ऐसा क्यों? तो हम एकात्म हैं, जो गरीब हैं वह भी मेरा ही अंग है, वह मेरा ही एक रूप है। मुझसे वह अलग नहीं। मैं उसको भोजन कराकर कोई उपकार नहीं कर रहा हूं, मैं उसको खिलाकर स्वयम् खा रहा हूं। हालांकि ठीक इसी भाषा में पंडितजी ना भी बोलते हों पर उनके चिंतन का तर्कसंगत अर्थ यही था। इसीलिए उनका आर्थिक चिंतन न तो समाजवादी था न ही पूंजीवादी। यदि इसे कोई नाम देना पड़ा तो कहेंगे की यथार्थवादी चिंतन था। जमींदारी समाप्त होनी चाहिए, जो जोतेगा उसकी जमीन होगी, प्रत्येक हाथ को काम मिले, और काम को मूलभूत अधिकार प्राप्त हो।

स्वदेशीकरण के थे समर्थक

वह स्वदेशी और विकेंद्रीकरण दोनों के समर्थक थे और बात अगर आर्थिक विकास की हो तो केंद्रीकरण को इसकी प्रमुख बाधाओं में से एक मानते थे

दीनदयाल उपाध्याय का निधन

दीनदयाल उपाध्याय जी को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया। लेकिन नियति को यह रास नहीं आया। 11 फरवरी 1968 में उनका निष्प्राण शरीर मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर पाया गया। पूरा देश इस खबर ही शोक में डूब गया। श्रद्धांजलि देने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी।

Dr Rishikesh

Editor - Bharat Varta (National Monthly Magazine & Web Media Network)

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