काशी व कोसी, मति भिन्न सुर एक
काशी जहां विश्मिल्लाह के सितारवादन पर इतलाता है वहीं कोसी अपनी बेटी शारदा के लोकगीत पर हो रहा गौरवान्वित
राजीव कुमार झा की विशेष रिपोर्ट :
पौराणिक आख्यानों के आधार पर कोसी एवं काशी दोनों में सदैव छत्तीस का आंकड़ा रहा है। जहां काशी को शिव की नगरी होने का अभिमान है वहीं कोसी को शिवा का आविभाव स्थल होने का गौरव। आदिगुरु शंकाराचार्य के अद्ववतय के सिद्धांत अर्थात एको हम द्वितीय नास्तिक को एकमात्र झटका मिथिला के माहिश्मती
नगरी आधुनिक महिषी में द्वैत के प्रखाण्ड आचार्य पंडित मंडन मिश्र और उनकी अर्धांगिनी विदुषी भारती के हाथों शास्त्रार्थ में पराजय के रूप में मिली थी। काशी और कोसी के पंडित आज भी एक दूसरे से श्रेष्ठतर साबित करने की जुगत में लगे हैं। जहां काशी के पंडित मिथिलावासियो को उनके मत्स्य मांस भक्षण के लिए हैय दृष्टि से देखते हैं वही कोसी के पंडित काशी की गणना पर बनारसी लग्न कहकर मख़ौल उड़ाते हैं। इन तमाम विषमताओं के बावजूद काशी और कोसी दोनों में बहुत समानताएं हैं चाहे वह खानपान के संबंध में हो या फिर संगीत की सुर साधना जैसे काशी के लोगों को मिष्ठान और भंग बहुत पसंद है। वैसे मिथिला में भी मिष्ठान और भंग संस्कृति का अंग रहा है। प्राचीन काल से रही बात संगीत की तो काफी दिनों तक दरभंगा घराना बनारस घराने यह समतुल्य ही समझा जाता रहा, जहां काशी संगीतकारों के लिए एक तीर्थ स्थली से कम नहीं रही है वहीं मिथिला के गांव गांव में गाए जाने वाले गीतों में राग देश की छाप मिल जाएगी राग देश अर्थात बारह स्वरों का संगम सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र। अगर काशी में सामता प्रसाद उर्फ गुदई महाराज का तबला किसी भी नृत्यांगना को सिर झुकाने के लिए मजबूर कर सकता था तो कोसी के पंडित रघु झा के गाए गीत उस तबला वादक को आरोहन अवरोहन पर सिद्धस्थ होने के लिए प्रतिबद्ध करता था। इतना ही नहीं कोसी व काशी में कुछ और समानता है। काशी जहां विश्मिल्लाह के सितारवादन पर इतलाता है वहीं कोसी अपनी बेटी शारदा के लोकगीत पर गौरवान्वित महसूस करता है। काशी को अगर संगीत की नगरी कहा जाता है वहीं कोसी को संगीत का खजाना। कोसी के गर्भ से कई संगीतज्ञ निकले। पंडित रघु झा से शुरू हुआ सफर उदित नारायण झा, शारदा सिन्हा और न जाने कितने कोहिनूर को जन्म दिया।