अप्प दीपो भव-5
– दिलीप कुमार (लेखक, कवि और मोटिवेशनल स्पीकर दिलीप कुमार भारतीय रेल सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं।)
प्रकृति से हम हैं, प्रकृति हमसे नहीं है। विश्व में लाखों किस्म के जीव, पेड़-पौधे, पहाड़, नदियां, झील, पोखर, बादल, हवाएं और सागरीय तरंगें प्रकृति के अंग हैं। इन लाखों हिस्सों में से एक हिस्सा अपना यानी मानव समुदाय का भी है। मनुष्य अपने आपको ब्रह्मांड का सबसे समझदार प्राणी मानता है। इस नाते प्रकृति की रक्षा का सबसे बड़ा दायित्व भी मानव समुदाय पर ही है। कहा भी जाता है प्रकृति रक्षति रक्षिताः। यानी यदि हम प्रकृति की रक्षा करेंगे तो प्रकृति हमारी रक्षा करेगी।
विकास की आंधी में उड़ान भरने की चाहत के कारण मनुष्य का प्रकृति से जुड़ाव कम हुआ है। प्रकृति की कीमत पर हमने विकास के महल खड़े किए हैं। यह महल आराम तो दे रहे हैं लेकिन सुख और आनंद की प्राप्ति इन महलों में नहीं हो पा रही। प्रकृति का अंग होने के कारण मनुष्य को असली सुख और शांति प्रकृति के सामंजस्य के साथ जुड़ा हुआ है।
प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के लिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की अनगिनत संस्थाएं अपने-अपने ढंग से प्रयास कर रही है। हमें अपने ढंग से प्रयास करना है। प्रकृति से अपना जुड़ाव बढ़ाकर हम धरती के सच्चे सेवक बन सकते हैं। प्रातः काल प्रकृति से जुड़ने का सबसे माकूल समय है। इस समय प्रकृति के सान्निध्य में मौन का सृजन हो सकता है। मौन की अनुभूति से हमारे बुद्धि-विवेक, स्मरण शक्ति और विचार करने की क्षमता में वृद्धि होती है। इसलिए आवश्यक है कि प्रातः काल में हम घर के आरामदायक वातावरण को छोड़कर प्रकृति से जुड़ने के लिए काम करें। आवासीय परिसर में यदि पौधे लगाए गए हैं तो उन्हें सुबह-सुबह पानी देना चाहिए। उसके बाद आसपास के किसी बाग-बगीचे, पार्क या उद्यान में प्रातः भ्रमण करते हुए प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करना चाहिए। यदि आपके घर से किसी नदी की दूरी पाँच किलोमीटर से कम है, तो प्रातः भ्रमण करते हुए नदी तट तक जाना और नदी के साथ संवाद करना भी एक अच्छी आदत है। नदी के किनारे सुबह का योगाभ्यास और प्राणायाम भी प्रकृति से जुड़ने का एक अच्छा विकल्प है। गांव में रहने वाले लोग प्रातः काल में अपने खेत-खलिहान और बागान का चक्कर लगाते ही हैं। बचपन में मैं भी गांव में रहता था। खेत-खलिहान और बाग-बगीचा में प्रातः भ्रमण प्रायः हर व्यक्ति का सामान्य रूटीन रहता था। गांवों में कमोबेश वैसी स्थिति आज भी बनी हुई है। लेकिन शहरी जीवन में समय की कमी को लेकर एक आभासी समस्या पैदा कर दी गई है। आलतू-फालतू के कामों में व्यस्त हो कर हम देर रात तक जागते रहते हैं और सुबह देर देर से बिस्तर छोड़ते हैं। फिर कार्यालय जाने की हड़बड़ी में अपने स्वास्थ्य को दरकिनार कर देते हैं और सुबह का जो समय स्वास्थ्य संवर्द्धन करते हुए प्रकृति के साथ जुड़ाव का होता है, उसे व्यर्थ गंवा देते हैं। हमें इस आदत को बदलना होगा। इलेक्ट्रॉनिक गैजेट या कोई और कार्य हमें अपनी ओर आकर्षित करे, उससे पहले ही हमें प्रकृति से जुड़ जाना है।
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