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संविधान की मूल भावना के खिलाफ है धार्मिक आधार पर आरक्षण, अमित यादव का आलेख

  • अमित कुमार यादव (लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय- नई दिल्ली में राजनीति विज्ञान का शोधार्थी हैं।)

हाल ही में कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम समुदाय की कुछ जातियों को सार्वजनिक ठेकों में आरक्षण देने का निर्णय लिया है, जिसके समर्थन में उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार ने यहां तक कह दिया कि “अगर जरूरत पड़ी तो संविधान बदला जाएगा।” इस बयान के साथ ही देश में एक बार फिर सामाजिक न्याय, आरक्षण, संविधान की मूल भावना और तुष्टीकरण की राजनीति पर चर्चा तेज हो गई है। यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस या उसके सहयोगी दलों ने मुस्लिम समुदाय को विशेष लाभ देने की पहल की हो। इससे पहले भी कांग्रेस नेता और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने मुसलमानों का देश के संसाधनों पर पहला हक बता चुके हैं तथा कांग्रेस पार्टी की सरकार सच्चर कमीशन, रंगनाथ मिश्रा कमीशन जैसे कई आयोगों के माध्यम से उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाने की कोशिश कर चुकी है। इसके साथ ही कांग्रेस के सहयोगी दलों में समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने भी अपने-अपने राज्यों क्रमशः उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में मुसलमानों को चार से पाँच प्रतिशत आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर चुकी हैं। ऐसे में यहां यह समझना जरूरी है कि आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य क्या है और संविधान इसके बारे में क्या कहता है? भारत का स्वतंत्रता संग्राम और संविधान सभा की बहसें यह स्पष्ट करती हैं कि आरक्षण की व्यवस्था उन समुदायों के लिए की गई थीं, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से सामाजिक अन्याय और भेदभाव का सामना करना पड़ा था। संविधान निर्माताओं ने आरक्षण को एक अस्थायी और आवश्यक उपाय के रूप में देखा, जिससे की समाज के सबसे वंचित वर्गों को समान अवसर और न्याय मिल सके। यह विचार सकारात्मक भेदभाव की अवधारणा पर आधारित था, जिसका उद्देश्य सामाजिक समानता को बढ़ावा देना था।

संविधान में आरक्षण का मौलिक सिद्धांत

भारत के संविधान में आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है, न कि धर्म। संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पहचान ऐतिहासिक अन्याय और छुआछूत के आधार पर की गई थी। यह वर्ग सदियों से सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से अत्यंत पिछड़े रहे हैं, और इसी आधार पर उन्हें आरक्षण दिया गया। इसके बाद 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़ा वर्ग यानि ओबीसी को भी आरक्षण की श्रेणी में सम्मिलित किया गया। इस आयोग ने पिछड़ेपन को मापने के लिए कई सामाजिक और शैक्षणिक मानकों का उपयोग किया, लेकिन इसका आधार भी सामाजिक असमानता ही था। 2019 में मोदी सरकार ने देश के कुछ गरीबों को सामाजिक न्याय से जोड़ने के लिए ईडब्ल्यूएस का प्रावधान किया लेकिन इसमें भी धर्म को आधार नहीं बनाया गया।

धार्मिक आधार पर आरक्षण तुष्टीकरण की राजनीति से प्रेरित

अब सवाल उठता है कि क्या किसी विशेष धर्म के लोगों को आरक्षण दिया जाना चाहिए? संविधान और सामाजिक न्याय की अवधारणा इस पर क्या कहती है? मुसलमानों को अलग से आरक्षण देने की मांग अक्सर यह तर्क देकर की जाती है कि वे आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं। लेकिन यह तर्क अधूरा है, क्योंकि पिछड़ेपन के आधार पर ही उन्हें पहले से अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की आरक्षण सूची में शामिल किया गया है। अगर किसी मुस्लिम जाति या समुदाय को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा पाया जाता है, तो वह पहले से ही OBC आरक्षण के अंतर्गत आता है। ऐसे में धार्मिक आधार पर अलग से आरक्षण देने की जरूरत क्यों पड़ रही है? यह स्पष्ट रूप से तुष्टीकरण की राजनीति का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य वोट बैंक की राजनीति को साधना है। धर्मनिरपेक्ष भारत में संविधान यह कहता है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा, और न ही कोई नीति धार्मिक आधार पर बनाई जाएगी। ऐसे में किसी विशेष धर्म के लिए आरक्षण की मांग और उसे लागू करने का प्रयास संविधान की मूल भावना के विपरीत है।

इस्लाम और आरक्षण दोनों एक दूसरे के विरोधाभासी

मुस्लिम समाज के कुछ वर्गों द्वारा आरक्षण की मांग किए जाने पर एक और महत्वपूर्ण पहलू सामने आता है। इस्लाम के सिद्धांतों के अनुसार, यह धर्म छुआछूत और भेदभाव को स्वीकार नहीं करता। इस्लामिक शिक्षा यह कहती है कि सभी इंसान बराबर हैं और किसी को भी जन्म के आधार पर ऊंचा या नीचा नहीं माना जा सकता। अब सवाल यह उठता है कि अगर इस्लाम समानता का समर्थक है, तो फिर मुस्लिम समाज में आरक्षण की मांग क्यों की जा रही है? अगर इस्लाम में जातिगत भेदभाव नहीं है, तो फिर मुसलमानों को अनुसूचित जाति (SC) या अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) जैसी श्रेणियों में शामिल करने की जरूरत क्यों पड़ रही है? यह विरोधाभास यह दर्शाता है कि इस्लामिक समाज भी व्यावहारिक रूप से सामाजिक असमानता और वर्गभेद से मुक्त नहीं है।

आरक्षण का दुरुपयोग का समाज और राष्ट्र पर प्रभाव

धार्मिक आधार पर आरक्षण लागू करने का सीधा प्रभाव समाज में विभाजन को बढ़ाने वाला हो सकता है। भारत पहले ही 1947 में धर्म के आधार पर विभाजन का दंश झेल चुका है। और अगर अब आरक्षण भी धार्मिक आधार पर दिया जाने लगा, तो यह देश की एकता और अखंडता के लिए गंभीर खतरा बन सकता है। इसके अलावा, यह कदम समाज में नई तरह की असमानता को जन्म देगा। जब कोई सरकार किसी एक समुदाय को विशेष लाभ देती है, तो अन्य समुदायों में असंतोष पैदा होना स्वाभाविक है। इससे सामाजिक सौहार्द बिगड़ सकता है और धार्मिक संघर्षों की संभावना बढ़ सकती है।

संवैधानिक बाधाएं और न्यायालय का दृष्टिकोण

भारत के न्यायालयों ने भी कई बार धार्मिक आधार पर आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि आरक्षण का आधार धर्म नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, 2010 में आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने मुस्लिम आरक्षण को असंवैधानिक घोषित किया था। इसके अलावा, संविधान की 50% आरक्षण की सीमा को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) मामले में कहा था कि कुल आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता। वर्तमान में पहले से ही अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिया जा रहा है, और कई राज्यों में यह सीमा पहले ही पार कर चुकी है। ऐसे में एक और नए आरक्षण वर्ग को जोड़ना न केवल असंवैधानिक होगा, बल्कि सामाजिक असंतुलन को भी बढ़ाएगा।

जस्टिस बालाकृष्णन आयोग के माध्यम से धार्मिक आधार पर आरक्षण को रोकने का मोदी सरकार का प्रयास

यूपीए सरकार के समय गठित रंगनाथ मिश्रा आयोग ने मुस्लिम और ईसाई समुदाय के कुछ जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की सिफारिश की थी। हालांकि, यह अनुच्छेद 341 के तहत निर्धारित परिभाषा के खिलाफ था, जिसमें अनुसूचित जाति का दर्जा केवल उन जातियों को दिया गया था, जो ऐतिहासिक रूप से छुआछूत और सामाजिक उत्पीड़न का शिकार रही हैं। मोदी सरकार ने 2023 में इस मुद्दे पर व्यापक अध्ययन और कानूनी समीक्षा के लिए जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन आयोग गठित किया है, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि यह कितना न्यायोचित है? सरकार का प्रयास है कि आरक्षण का आधार केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन रहे, न कि धर्म। आयोग इस बात का विश्लेषण करेगा कि क्या मुस्लिम और ईसाई समुदायों को भी हिंदू, सिख और बौद्ध दलितों की तरह ही सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है? सरकार की मंशा यह सुनिश्चित करना है कि आरक्षण का दुरुपयोग न हो और यह केवल उन वंचित समुदायों को मिले, जो वास्तविक रूप से सामाजिक अन्याय के शिकार हैं। क्योंकि भारत में आरक्षण का उद्देश्य ऐतिहासिक रूप से वंचित और शोषित समुदायों को समान अवसर देना है। यह सामाजिक न्याय की एक व्यवस्था है, जिसे संविधान निर्माताओं ने बड़ी सूझबूझ के साथ लागू किया था। लेकिन अगर इसे तुष्टीकरण का हथियार बना दिया गया, तो यह समाज में नए तरह के विभाजन और असंतोष को जन्म देगा। धार्मिक आधार पर आरक्षण संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और इसे लागू करना न केवल असंवैधानिक होगा, बल्कि सामाजिक न्याय की संकल्पना को भी कमजोर करेगा। सरकारों को चाहिए कि वे संविधान में प्रद्गत आरक्षण की मूल आत्मा को सुरक्षित रखते हुए इसे केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन तक सीमित रखें।

Dr Rishikesh

Editor - Bharat Varta (National Monthly Magazine & Web Media Network)

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