साहित्य संसार

कोरोना महामारी के दौर में महिलाओं का कष्ट दोहरा और बोझ अतिरिक्त है : चेतना

चेतना त्रिपाठी, सचिव, चेतना सर्विंग ह्यूमानिटी

24 मार्च 2020 को भारत सरकार के माननीय प्रधानमंत्री के आदेश से प्रथम बार देशव्यापी लॉकडाउन लगे थे। यह आदेश कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए एक निरोधात्मक उपाय था। लॉकडाउन के कारण से कोरोना संक्रमण के दर में कुछ कमी दिखी इसलिए बारी-बारी से मई 2020 तक लॉकडाउन बढ़ा दिया गया था। इसके बाद चला अन-लॉक का दौर जो मार्च 2021 तक किसी न किसी रुप में प्रभावी रहा। आज पुनः कोरोना की दूसरी लहर पूरे दुनिया में तबाही मचाए हुए है। स्थिति ऐसी है कि आज पुनः बिहार सरकार ने 15 मई तक लॉकडाउन की घोषणा की है। सामान्य रूप से कोरोना का संकट पूरी दुनिया एवं मानव मात्र के सन्मुख सबसे बडा ख़तरा है। विशेष रुप से देखें तो कह सकते हैं कि कोरोना वायरस से औरतों पर बड़ा खतरा आ गया है। एक बीमारी के तौर पर कोरोना का खतरा औरत-मर्द के लिए बराबर है या नहीं यह तो समय बतायेगा। किंत कोरोना के कारण जो स्थितियां पैदा हुई है उसने पुरुषों के वनिस्पत महिलाओं के जिंदगी पर अतिरिक्त बोझ डाला है। यह बोझ मानसिक, शारिरिक और आर्थिक प्रतिरूप में दिख रही है। स्थितियां लॉकडाउन के समय से ही प्रतिकूल होने लगी थी। ऐसी स्थितियां कामकाजी महिलाओं की ज़िंदगी में विशेष रूप से आप देख सकते हैं। घरेलू काम का अतिरिक्त बोझ बढ़ना तो सामान्य बात है। इस दौर में घरेलू हिंसा में भी बढ़ोतरी के ट्रेंड देखे गए
हैं। जब कोई घर में बीमार होता है तो अपने काम के अलावा परिवार के सदस्यों और बच्चों के देखभाल की अतिरिक्त बोझ इनके ऊपर आ जा रही है। प्रस्तुत लेख में महिलाओं के दृष्टिकोण से कोरोना महामारी के असर का का प्रयास किया गया है।

कोरोना के एक वर्ष के दौर में महिलाओं के एक बड़े वर्ग को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। ऐसा नहीं है कि इनके नियोक्ताओं ने इन्हें हटा दिया हो। ऐसा इसलिए हुआ कि इस दौर में इनकी प्रायॉरिटी (वरीयता) परिवार हो गया है। आज महिलाओं के ऊपर परिवार का देखभाल करने की जिम्मेदारी बढ गई है। आज उनको घरेलू काम ज्यादा करना पड़ रहा है। यही कारण है कि आज अधिकांश महिलाएं काम पर वापस नहीं जा रही है। यह बिंदु सबसे बड़ी चिंता का बिंदु है। नौकरी कर के आर्थिक रूप से सबल होकर महिलाओं ने असल मसशक्तिकरण का पायदान पाया है। इस बिंदु पर यह महामारी महिला सशक्तिकरण के राह में एक बड़ा अवरोध बन गया है। यूएन वुमन में डिप्टी एक्जीक्यूटिव अनिता भाटिया कहती हैं, ”हमने पिछले 25 वषों में
जो भी काम किया है, वो एक साल में खो सकता है। ये रोजगार और शिक्षा के मौके खत्म कर सकते हैं। महिलाएं ख़राब मानसिक और शारिरिक स्वास्थ्य की शिकार हो सकती हैं। अनिता भाटिया के मुताबिक इस समय महिलाओं पर देखभाल का जो भार बढ गया है, उससे 1950 के समय की लैंगिक रूढ़ियों के फिर से कायम होने का खतरा पैदा हो गया है।”

बहुत से ऐसे घर है जिसके मुखिया महिलाएं हैं और परिवार चलाने की मुख्य जिम्मेदारी उनके कंधों पर है। उनके लिए महामारी का समय बड़ी परीक्षा की घड़ी है। स्थिति लॉक डाउन की हो या सीमित प्रतिबंध वाली हो। पिछले एक वर्ष में वैसे क्षेत्र जहां महिलाएं प्रमुख रूप से सेवारत थी सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। सेवा क्षेत्र, रीटेल बिजनेस, हॉस्पिटलिटी और टूरिज्म का क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र है, जहां प्रमुख रूप से अधिक संख्या में महिलाएं कार्य करती है। दूसरी ओर वैसे क्षेत्र जहां महिलाओं का एकाधिकार था या ज्यादा संख्या में नियोजित थी वहां उनके स्वास्थ्य पर पुरुषों से ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। ननर्सिंग, हॉस्पिटल सफाई, लॉन्ड्री, दाई का काम करने वालों में 70 प्रतिशत तक महिला कर्मी नियोजित हैं। कोविड-19 के सम्पूर्ण दौर में ये फ्रंटलाइन वर्कर्स के रूप में वायरस संक्रमण के खतरों से सीधा मुकाबला कर रही हैं। हमें नहीं पता की सही मात्रा में और सही साइज में इन्हें सुरक्षा उपकरण आदि मिल रहे हैं या नहीं। मेरा मानना है कि इस क्षेत्र की निर्माण कंपनियां महिलाओं के लिए सही साइज और जरूरत के हिसाब से सुरक्षात्मक उपकरण बनाए और मुहैया कराये।

स्वास्थ्य सेवाओं में स्त्री रोग, मातृत्व स्वास्थ्य, किशोरियों का स्वास्थ्य बहुत ही जरूरी और आकस्मिक सेवाओं में गण्य है। स्वास्थ्य सेवा में इस बिंदु को हमेशा सर्वोपरि स्थान दिया जाता रहा है। लेकिन कोविड-19 महामारी के काल में ये जरूरी सेवाएं न चाहते हुए भी हासिए पर चली गई है। निश्चित रूप से लम्बे समय तक ऐसी स्थिति महिलाओं के स्वास्थ्य को बहुत ही प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगी। मातृत्व और शिशु मृत्यु दर को जो हमने बड़ी मुश्किल से कुछ कम किया था इस मिशन में बड़ी बाधा आ सकती है।

इसी तरह घरेलू हिंसा आदि में इस दौर में काफी बढ़ोतरी हुई है। लॉकडाउन के समय कई बार न चाहते हुए हिक्त रिश्तों के बावजूद महिलाएं अपने दुश्मन सम्बंधियों के साथ रहने पर बाध्य हुई। जहां रिश्ते पहले बेहतर नहीं थे किंतु हिंसा का बिंदु रिश्तों में नहीं थे, वहां भी मानसिक तनाव, काम के अभाव, आर्थिक व सामाजिक कठिनाइयों तथा घर में कैद रहने के मजबूरी जनित अवसाद आदि के वजह से हिंसात्मक प्रवृत्ति का शिकार उन्हें होना पड़ा। इस दौर में न्यायालय, पुलिस और घरेलू हिंसा की बुराई को देखने वाली संस्थाएं भी महिलाओं के सहयोग के लिए पूर्व की भांति सुलभ नहीं थे।

महामारी के दौर में स्कूलों का बंद होना न केवल महिलाओं को बड़े पैमाने पर बेरोजगार (शिक्षक और शिक्षकेत्तर कर्मचारी के रूप में) किया बल्कि
घर में उनका काम का बोझ भी अतिरिक्त रूप से बढ़ा दिया है। निश्चय ही यह बोझ पुरुषों के मुकाबले महिलाओं ने अधिक महसूस किया है।

अंत में यही कहा जा सकता है कि यह महामारी मानव जीवन के लिए बहुत बड़ी त्रासदी लेकर आयी है। इसके प्रभाव मानव जीवन की छति, मानव को अपार कष्ट और मानव विकास में बाधा के रूप में देखी जाएगी। चुकी महिलाएं पहले से कमजोर वर्ग है। पारम्परिक समाज और अर्थव्यवस्था महिलाओं को पूर्व से हासिए पर रखे हुए था। महिला सशक्तिकरण पिछले तीन चार दशकों से समाज और सरकार के कार्यक्रम का मुख्य हिस्सा बनी थी। कहने का अर्थ है कि महिला सशक्तिकरण का पौध अभी नन्हा ही है। इस महामारी के काल में समस्त मानव समाज तो आहत है ही। किंतु डर है कि कहीं इस आपदा काल में महिला सशक्तिकरण को चीर हानि न हो जाए। इसी लिए इस लेख के माध्यम से विद्वत जगत से अपील होगी कि कोविड-19 महामारी से मुकाबले के लिए जो भी तरीके अपनाए जा रहे हैं उसमें महिलाओं की सहभागिता, उसका हित और महामारी जनित अहित कम से कम हो इसका पूरा ख्याल रखा जाए।

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Ravindra Nath Tiwari

तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय। 17 साल हिंदुस्तान अखबार के साथ पत्रकारिता के बाद अब 'भारत वार्ता' में प्रधान संपादक।

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