17 अक्टूबर से शुरू हो रही है महा नवरात्रि सजा रहेगा विंध्याचल का दरबार
सिद्ध शक्तिपीठ विंध्याचल में शक्ति रूप में स्थित है माता
बिंध्याचल: 17 अक्टूबर से महा नवरात्रि शुरू हो रही है विंध्याचल मां का दरबार सज जाएगा भक्तों के लिए । आइए जानते हैं विंध्याचल धाम की महिमा। मार्कंडेय पुराण के अंतर्गत वर्णित श्री दुर्गा सप्तशती (देवी माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर मां भगवती ने कहा है- नन्दागोपग्रिहेजातायशोदागर्भसंभवा, ततस्तौ नाशयिश्यामि विंध्याचलनिवासिनी।
त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण कर विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली और भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। कहा जाता है कि जो मनुष्य यहां तप करता है उसे अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है। विभिन्न सम्प्रदाय के उपासकों को मनवांछित फल देने वाली मां विंध्यवासिनी देवी अपने अलौकिक प्रकाश के साथ यहां नित्य विराजमान रहती हैं। विंध्याचल हिंदुओं का प्रमुख तीर्थस्थल है।
उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर जिला विंध्यवासिनी मंदिर के अलावा कई विक्टोरिया काल की बेहतरीन इमारतों के लिए जाना जाता है। मंदिर के अलावा विंध्याचल का प्राकृतिक सौंदर्य भी प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। यह क्षेत्र हरे-भरे वन से आच्छादित है और मंदिर के साथ-साथ सुंदर वातावरण भीड़-भाड़ से जो लोग बचना चाहते हैं उनके लिए प्रिय स्थान है।
विंध्य क्षेत्र का महत्व तपोभूमि के रूप में पुराणों में वर्णित है। विंध्याचल की पहाड़ियों में गंगा की पवित्र धाराओं की कल-कल करती ध्वनि प्रकृति की अनुपम छटा बिखेरती है। विंध्याचल पर्वत न केवल प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा स्थल है बल्कि संस्कृति का अद्भुत अध्याय भी है। इसकी माटी की गोद में पुराणों के विश्वास और अतीत के अध्याय समाए हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता।
यहां संकल्प मात्र से उपासकों को सिद्धि प्राप्त होती है। इस कारण यह क्षेत्र सिद्धपीठ के रूप में भी विख्यात है। साथ ही यहां पर स्वयं शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। साक्षात शक्ति स्वरूपा इस पवित्र स्थल पर प्रकट हुईं इसलिए यह शक्ति स्थल के नाम से भी विख्यात है।
आदिशक्ति की शाश्वत लीलाभूमि मां विंध्यवासिनी के धाम में पूरे वर्ष दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं।
इसकी पुष्टि मार्कंडेय पुराण के अंतर्गत श्री दुर्गा सप्तशती की कथा से भी होती है जिसमें सृष्टि के प्रारंभ काल की कुछ इस प्रकार चर्चा है- सृजन की आरंभिक अवस्था में सम्पूर्ण रूप से सर्वत्र जल ही विद्यमान था। शेषमयी नारायण निद्रा में लीन थे। भगवान के नाभि कमल पर वृद्ध प्रजापति आत्मचिंतन में मग्न थे। तभी विष्णु के कर्ण रंध्र से दो अतिबली असुरों का प्रादुर्भाव हुआ। ये ब्रह्मा को देखकर उनका वध करने के लिए दौड़े। ब्रह्मा को अपना अनिष्ट निकट दिखाई देने लगा।
असुरों से लड़ना रजोगुणी ब्रह्मा के लिए संभव नहीं था। यह कार्य श्री विष्णु ही कर सकते थे, जो निद्रा के वशीभूत थे। ऐसे में ब्रह्मा को भगवती महामाया की स्तुति करनी पड़ी तब जाकर उनके ऊपर आया संकट दूर हो सका। विंध्यवासिनी मां विंध्याचल की संरक्षक देवी मानी जाती हैं। उनके आसन को भक्तों द्वारा सबसे पवित्र शक्तिपीठ के साथ ही उन्हें प्रेम और करूणा का प्रतीक माना जाता है। विंध्याचल देवी मंदिर एक विशाल संरचना है जो विंध्याचल शहर के व्यस्त बाजार के बीचों-बीच स्थित है। इस तीर्थस्थल में देवी की प्रतिमा एक शेर पर स्थित है। मूर्ति को काले पत्थर से तराशा गया है।
लोक कथाओं के अनुसार महिषासुर राक्षस का वध करने के बाद देवी मां ने विंध्याचल को ही अपना निवास स्थान बनाया। अपने सर्वश्रेष्ठ दिनों में विंध्याचल अपने कई मंदिरों और इमारतों के लिए जाना जाता था लेकिन इन सभी को मुगल शासक औरंगजेब के शासनकाल में नष्ट कर दिया गया था किंतु इनमें से कुछ आज भी बचे हुए हैं। देवी सीता को समर्पित रामायणकालीन सीता कुंड के साथ-साथ यहां पर कई आकर्षण हैं। यहीं पर देवी काली को समर्पित एक कालीकोह प्राचीन मंदिर भी है।
रामेश्वर महादेव के बारे में मान्यता है कि श्रीराम ने यहां शिवलिंग को स्थापित किया था। यहां का अष्टभुजा देवी मंदिर देवी अष्टभुजा को समर्पित है जो श्रीकृष्ण जी को पालने वाली यशोदा माता की पुत्री थीं। विंध्याचल सड़क मार्ग द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है और रेल तथा वायु मार्गों द्वारा यहां वाराणसी में पहुंचा जा सकता है। विंध्याचल भ्रमण का आदर्श समय अक्तूबर से मार्च के बीच का है।
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