रामवृक्ष बेनीपुरी जयंती: पढ़िए लोकगायिका नीतू नवगीत का विशेष लेख

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डॉ. नीतू कुमारी नवगीत

बच्चों की कल्पनाशीलता और रचनात्मकता के विकास में कहानियों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। दादी-नानी के श्रीमुख से सुनी गई कहानियों में अंतर्मिश्रित संदेशों से न सिर्फ बच्चों के चरित्र का विकास होता है, बल्कि उनकी मानसिक क्षमता और वैयक्तिक दृढ़ता का निर्माण भी होता है। बच्चे कहानियों में अंतर्निहित किस्सागोई का रसास्वादन करने के साथ-साथ कल्पना और फंतासी की दुनिया में भी वितरण करने का आनंद प्राप्त करते हैं। घरों में टेलीविजन और इलेक्ट्रॉनिक गजटों के प्रवेश से पहले बच्चों की पहली फरमाइश कहानी ही हुआ करती थीं। घर का जो सदस्य या अतिथि बच्चों को कहानियां सुना सकता, बच्चे उसे अपने हृदय में स्थान देते।

हिंदी बाल साहित्य का इतिहास के लेखक प्रकाश मनु ने हिंदी बाल कहानी का प्रारंभिक युग बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से लेकर 1947 तक माना है। प्रारंभिक युग के बाल कहानीकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मोहनलाल महतो वियोगी, सुदर्शन, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, विद्याभूषण विभु, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामनरेश त्रिपाठी, हंस कुमार तिवारी, जहूर बख्श, शेखर नईमुद्दीन मास्टर और स्वर्ण सहोदर को रखा गया है। इस समय के बाल कहानियों का उद्देश्य बच्चों को भारत की पारंपरिक संस्कृति से परिचय कराने के अलावा उनके अंदर स्वतंत्रता के मूल्य को जगाना भी रहा। रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने बाल साहित्य के माध्यम से यह कार्य बड़ी ही मुस्तैदी से संपादित किया। प्रकाश मनु कहते हैं- रामवृक्ष बेनीपुरी ने बड़ी ही रुचि और जिम्मेदारी से बच्चों के लिए एक से एक अच्छी कहानियां लिखी और आजादी से पहले के बाल कथा साहित्य को समृद्ध करने में उनका ऐतिहासिक योगदान है। बेनीपुरी जी की रोचक और भावनात्मक कहानियां बाल पाठकों का अपने साथ बहा ले जाती हैं। उनकी बहुत सी कहानियां लोक शैली के अंदाज में लिखी गई हैं जिनमें चरित्रों के विकास के जरिए वे बहुत नयापन ले आते हैं।

रामवृक्ष बेनीपुरी वस्तुतः एक महान विचारक, चिंतक, संपादक, साहित्यकार, पत्रकार और अग्रगामी सोच वाले क्रांतिकारी रहे हैं। उनका जन्म 23 दिसंबर, 1899 को मुजफ्फरपुर जिला के बेनीपुरी गांव में हुआ था, जिसके आधार पर उन्हें अपना उपनाम बेनीपुरी रखा था। प्रारंभिक शिक्षा ननिहाल में होने के उपरांत जब उन्होंने मैट्रिक पास किया तो फिर राष्ट्रीयता की भावना से प्रभावित हो असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। उनका पूरा व्यक्तित्व आकर्षक और शौर्य की आभा से दीप्त था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने करीब आठ साल काल कोठरियों में बिताए। उन्होंने एक साथ नाटक, जीवनी, संस्मरण, निबंध, ललित गद्य आदि लिखे हैं और सभी उत्कृष्ट कोटि के हैं। 1930 के कारावास काल के अनुभव के आधार पर उन्होंने पतितों के देश में उपन्यास लिखा। माटी की मूरतें उनके रेखाचित्रों का संकलन है। वंदे वाणी विनायकौ में उन्होंने ललित निबंधों को स्थान दिया है। उनकी कृतियों में चिता के फूल, लाल तारा, कैदी की पत्नी, माटी, गेहूं और गुलाब, जंजीरें और दीवारें, उड़ते चलो उड़ते चलो, मील के पत्थर आदि शामिल हैं। उन्हें जयप्रकाश नारायण की जीवनी लिखने का श्रेय भी जाता है। अंबापाली, सीता की मां, संघमित्रा, अमर ज्योति, तथागत, स्नेहल विजय, शकुंतला, रामराज्य, नेत्रदान, गांव के देवता, नया समाज, विजेता, बैजू मामा आदि नाटकों के जरिए भी उन्होंने साहित्य की महत्वपूर्ण सेवा की। उन्होंने तरुण भारती, युवक, चुन्नू मुन्नू, किसान मित्र, कैदी, योगी, जनता, हिमालय, नई धारा आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। जाहिर है कि रामवृक्ष बेनीपुरी का रचना संसार काफी विस्तृत है। उनकी बाल कहानियों का संसार भी काफी बड़ा है। बाल पत्रिकाओं के संपादन के दौरान उन्होंने खूब पड़ा और बच्चों के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया। फिर बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से उन्होंने बड़े पैमाने पर बाल साहित्य लिखा। जनश्रुतियों और पारंपरिक लोक कथाओं पर आधारित कहानियां तो उन्होंने लिखी ही, भारतीय मनीषी परंपरा के अनेक लोगों की जीवनी भी कथा शैली में लिखी ताकि बच्चे उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण कर सकें। उन्होंने साहस कथाएं भी लिखी और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई नई जानकारियों को लेकर वैज्ञानिक सोच वाली कहानियां भी। संभवत रविंद्र नाथ ठाकुर को छोड़कर किसी भी दूसरे भारतीय लेखक के बाल साहित्य में बेनीपुरी जी जितनी विविधता और व्यापकता नहीं है। बाल कहानियों का उनका संग्रह सियार पांँडे 1925 में प्रकाशित हुआ था। 1926 में गुरु गोविंद सिंह का प्रकाशन हुआ। 1926 में ही लंगट सिंह का प्रकाशन हुआ। 1927 में हीरामन तोता कथा संग्रह का पहली बार प्रकाशन हुआ। फूलों का गुच्छा पहली बार 1938 में, पदचिन्ह भी 1938 में, रंग बिरंग और अनोखा संसार 1942 में, बेटियां हो तो ऐसी और हम उनकी संतान हैं 1948 में, इनके चरण चिन्हों पर 1949 में, अमृत की वर्षा 1952 में और अमर कथाएं 1949 में पहली बार प्रकाशित हुई। बाद में महेंद्र बेनीपुरी जी के प्रयास से उनकी सभी कहानियां दो खंडों में संपूर्ण बाल साहित्य एक और संपूर्ण बाल साहित्य दो वर्ष 2018 में प्रकाशित हुई।

रोचक कथा शैली और सरल प्रभावशाली भाषा के कारण रामवृक्ष बेनीपुरी की बाल कहानियों में पठनीयता का तत्व बहुत ज्यादा है। क्या बच्चे और क्या बुजुर्ग, जो भी इन कहानियों को पढ़ना प्रारंभ करते हैं, समाप्त करके ही विराम लेते हैं। हीरामन तोता, 4 लाल बुझक्कड़, अमृत की वर्षा, दिनों की कहानी आदि में लोक शैली का प्रयोग मिलता है। 1927 में प्रकाशित कथा संग्रह हीरामन तोता में दो कहानियां हैं। हीरामन तोता और चार लाल बुझक्कड़। दोनों कहानियां अत्यंत रोचक हैं। हीरामन तोता कहानी लंबी होने के बावजूद शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रखती है। हीरामन तोता कहानी में राजा सिंगलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती से विवाह की इच्छा करता है जिसमें हीरामन तोता उसका सहायक बनता है। इस कहानी की भाषा शैली पर नजर डालिए-

उसके पास पहुंचने के लिए उड़न बछेड़ा चाहिए।

उस घोड़े का भाग्य पलटा। घी में चभोरी बाटियाँ चाभने लगा। थोड़े ही दिनों में मुटाकर मकुना हो गया।

कहानी में बच्चों की दिलचस्पी को बनाए रखने के लिए कथाकार रामवृक्ष बेनीपुरी तरह-तरह की तरकीबें अपनाते हैं। हीरामन तोता का राजा अंधा हो जाता है तो उसे ठीक करने के लिए गरुड़ के बच्चे का गरम-गरम बीट लेकर राजा की आंखों में लगाने की योजना बनती है। उस बीट को लाने के लिए भी हीरामन तोता सात समुद्र तेरह नदी पार कर सेमल के एक बड़े पेड़ के पास जाता है। इस तरह की बातों से कथा की रोचकता बनी रहती है। कथा सुन रहे बच्चे के मन में सबसे बड़ा प्रश्न उमड़ता रहता है कि इसके बाद क्या होगा। चार लाल बुझक्कड़ कहानी में 4 पात्र हैं जिसमें एक राजा का लड़का है। एक वजीर का लड़का है। एक बढ़ई का लड़का और एक सोनार का लड़का। चारों की एक तरह की सोच और एक तरह की लाल बुझक्कड़ी। तरह-तरह की कहावतें और मुहावरे का प्रयोग करके पूरी कहानी को रामवृक्ष बेनीपुरी रोचक बनाए रखते हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी की बाल कहानियों की भाषा नितांत मौलिक है। शहरी और ग्रामीण दोनों परिवेश के बच्चों के लिए उन्होंने बाल प्रकृति के अनुकूल चमत्कारिक तरीके से शब्दों का चयन किया। भाषा में ओज है। संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू के प्रचलित शब्दों का उन्होंने बहुलता से प्रयोग किया और भाषा को सजीव, सरल और प्रवाहमयी बनाए रखने के लिए मुहावरों और लोकोक्तियों की झड़ी लगा दी। उनकी बाल कहानियों में विषय के अनुरूप विविध भाषागत शैलियों के दर्शन होते हैं। कहीं चित्रपट शैली तो कहीं डायरी शैली। कहीं लोक शैली तो कहीं उर्दू मिश्रित हिंदी। लेकिन भाषा में सर्वत्र प्रवाह और रस विद्यमान रहता है। छोटे-छोटे होने के बावजूद उनके लिखे वाक्य और संवाद पाठकों को भावविभोर कर देते हैं।
रामवृक्ष बेनीपुरी ने खुद माना है कि उनकी भाषा में गेहूं और गुलाब का समन्वय है। यानी भाषा में यथार्थ की कठोरता भी है और प्रकृति का सौंदर्य भी।

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के लेखकों में रामवृक्ष बेनीपुरी का एक विशिष्ट स्थान है। साहित्य की किसी विधा में उनके योगदान कि यदि निरपेक्ष विवेचना की जाए तो यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि उनकी साहित्यिक रचनाओं के साथ न्याय नहीं किया गया। बेनीपुरी जी की राजनीतिक सक्रियता के कारण कई आलोचकों ने उन पर लेखनी चलाने से परहेज किया। रामवृक्ष बेनीपुरी कलम के सिपाही प्रेमचंद की श्रेणी के लेखक थे जिन्होंने हिंदी साहित्य को नई ऊंचाइयां प्रदान की।

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