दलित राजनीति की तस्वीर बदलना चाहती हैं प्रियंका गांधी, भाजपा-सपा या बसपा में कांग्रेस जैसा साहस कहां!
- निलेश कुमार
दलितों को अधिकार देने की बात आती है तो अक्सर इसे आरक्षण से जोड़कर देखा जाता है. पढ़ाई में आरक्षण, नौकरी में आरक्षण, राजनीति में आरक्षण. इसमें तीसरा पॉइंट इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी समाज का उत्थान बिना उसकी राजनीतिक हिस्सेदारी के नहीं हो सकता. दलितों का हित सोचने वाला, उनके ही बीच से निकले, तभी तो तस्वीर बदलेगी. कांग्रेस की नीति भी तो शुरू से यही रही है.
अब सीधे मुद्दे पर आते हैं. उत्तर प्रदेश में 403 विधानसभा सीटों पर चुनाव होते हैं. इनमें 84 सीटें दलितों के लिए आरक्षित होती हैं. भाजपा हो या सपा-बसपा.. इन पार्टियों की मजबूरी होती है, 84 आरक्षित सीटों पर दलित उम्मीदवारों को तो टिकट देना. लेकिन कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी है, जिसके लिए यह मजबूरी नहीं, बल्कि एक अवसर है, दलितों को लेकर अपनी राजनीति के मूल सिद्धांतों को आगे बढ़ाने का. तभी तो कांग्रेस ने जेनरल सीटों पर भी दलित प्रत्याशी उतारे हैं.
कांग्रेस की ओर से सामान्य सीटों पर दलित उम्मीदवारी की बात करें तो पार्टी ने लखनऊ की बख्शी का तालाब सीट से जुझारू युवा ललन कुमार, बरेली जिले की बहेरी सीट से संतोष भारती को, लखीमपुर खीरी की धौरहरा सीट से जितेंद्री देवी को, मिर्जापुर के मड़िहान सीट से गीता देवी को, बलिया के रसड़ा सीट से डॉ ओमलता को और चित्रकूट से निर्मला भारती को टिकट दिया है. कुल मिलाकर बात करें तो कांग्रेस ने 89 सीटों पर दलित समाज के लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया है. अन्य पार्टियों में यह साहस कहां है!
दलित समाज ने मायावती की नेतृत्व वाली जिस पार्टी को कभी अपना तारणहार समझा, उस बहुजन समाज पार्टी ने भी दलितों को छला है. और दलित समाज इस सच से वाकिफ हो चुकी है. बात करें सपा या भाजपा की, तो इन पार्टियों ने हमेशा से दलितों को केवल अपना वोट बैंक माना है. भाजपा भी दलितों को लेकर जितनी बड़ी-बड़ी बातें कर ले, लेकिन सच्चाई यही है कि दलितों को हिस्सेदारी देने के नाम पर या फिर उन्हें नीति निर्णायक पदों पर बिठाने में भाजपा को सांप सूंघ जाता है.
ये पार्टियां खुद तो दलितों को टिकट नहीं ही देंगे, ये उन्हें आगे बढ़ता देखना भी नहीं चाहते. ताजा घटना चित्रकूट की है. प्रियंका गांधी ने यहां की सामान्य सीट पर दलित बेटी निर्मला भारती को टिकट दिया है, जिससे बाकी पार्टियां बौखला गई हैं. दलितों को इतने सालों से बेवकूफ बनाती आ रही पार्टी बसपा के लोगों ने निर्मला भारती के साथ मारपीट की. प्रदेश की जनता सब नोटिस कर रही है. लखनऊ की बख्शी का तालाब सीट की ही बात करें तो जुझारू युवा ललन कुमार को रणनीतिकारों ने आरक्षित सीट से लड़ने की सलाह दी, लेकिन उन्होंने सामान्य सीट से लड़ते हुए सांप्रदायिक और जातीय उन्मान फैलाने वाली पार्टियों को जवाब देने की ठानी.
वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे कहते हैं कि दलित राजनीति को लेकर कांग्रेस की नीति शुरू से ही स्पष्ट रही है. कांग्रेस शुरू से यही चाहती रही है कि दलितों का नेतृत्व दलितों के बीच से ही निकले. 2016 में राहुल गांधी ने दलित अस्मिता के लिए भीम ज्योति यात्रा निकाली थी. हर वर्ग को सामाजिक न्याय देने की गारंटी कांग्रेस के ही बूते की बात है. कांग्रेस ने देश को पहला दलित राष्ट्रपति दिया. लोकसभा में पहली दलित महिला स्पीकर कांग्रेस ने ही दिया. ताजा उदाहरण पंजाब का है. चरणजीत सिंह के रूप में कांग्रेस ने पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री दिया. पहले कहा जा रहा था कि चुनाव में कुछ महीने बचे थे, इसलिए कांग्रेस ने ऐसा किया. लेकिन नवजोत सिंह सिद्धु की तल्खी और तेवर के बावजूद कांग्रेस ने चन्नी को ही सीएम कैंडिडेट बनाया.
जहां हर दिन दलितों पर अत्याचार, शोषण की खबरें आती हैं, उस यूपी में कांग्रेस ने सरकार बनने पर किसी दलित को ही राज्य का गृहमंत्री बनाने का संकल्प लिया है. ताकि वह उसी नजरिये से अत्याचार निवारण की दिशा में काम कर पाएगा. भाजपा की योगी सरकार में तो दलित समाज की बहन-बेटियों के साथ हुए बलात्कार, दलित की हत्या होने पर पुलिस एक्शन तक नहीं लेती. बहुत दबाव बनने पर औपचारिकताएं पूरी कर लेती है, बस.
कांग्रेस यह तस्वीर बदलना चाहती है. क्योंकि दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए कई दशकों से प्रयास हो रहे हैं. लेकिन क्या कारण हैं कि आजादी के दशकों बाद तक अपेक्षित परिणाम नहीं आए हैं. भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, लेकिन क्या यह महोत्सव दलित तबका भी उतने उत्साह के साथ मना सकता है? नहीं! मनाए भी कैसे? लगभग हर दिन दलितों के साथ अत्याचार, हिंसा, बलात्कार, हत्या जैसी खबरें सामने आती रहती हैं. ऐस में दलित समाज अपने दुख को दबाकर कैसे उत्सव मना सकता है, भला?
भौगोलिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश तो सबसे बड़ा राज्य है ही, राजनीतिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश का दायरा बहुत बड़ा है. अक्सर कहा जाता है कि दिल्ली की कुर्सी तक पहुंचने का सफर उत्तर प्रदेश से शुरू होता है. यह प्रदेश राजनीति में मानकीकरण के लिए जाना जाता है. कांग्रेस चाहती है कि दलित राजनीति को लेकर भी उत्तर प्रदेश ही एक बड़ा उदाहरण बने. सबसे ज्यादा विधानसभा सीटों वाले इस प्रदेश में दलितों की सबसे ज्यादा भागीदारी होगी तभी तो दलित राजनीति की तस्वीर बदलेगी. आरक्षित सीटों के अलावा सामान्य सीट पर भी दलितों को टिकट देना कांग्रेस के सुधारात्मक कदमों में से है. कांग्रेस की इस पहल का स्वागत होना चाहिए.
युवा पत्रकार निलेश कुमार के ब्लॉग (nilnishu.blogspot.in) से साभार