बिहार सरकार ने दागी आईएएस आरएल चोंग्थू को इतने साल बचाया, महत्वपूर्ण पदों से नवाजा लेकिन अब फंसाया….. समझिए इनसाइड स्टोरी

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डॉ. रवीन्द्र नाथ तिवारी

बिहार के राज्यपाल के प्रधान सचिव आरएल चोंग्थू ने वर्ष 2004 में सहरसा के डीएम रहते अपात्र लोगों को हथियारों का लाइसेंस दिया था। चुनाव आयोग के निर्देश पर सहरसा में पदस्थापित किए गए तत्कालीन एसपी अरविंद पांडेय ने वर्ष 2005 में इस मामले का खुलासा किया और सदर थाने में आरएल चोंग्थू समेत सात लाइसेंस धारकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराया। इन लोगों ने सहरसा में फर्जी पता देकर लाइसेंस लिए थे।
उस समय आरएल चोंग्थू बांका के डीएम थे। एसपी की कार्रवाई के बाद बिहार की राजनीति और नौकरशाही में भूचाल मच गया था।

अरविंद पांडेय के लिखने पर मुख्य सचिव जी.एस. कंग, वी. जयशंकर और सिरोही पर भी हुई थी आएफआईआर

डीएम पर एफआईआर दर्ज होने के बाद मुख्य सचिव जी.एस. कंग एसपी अरविंद पांडेय से काफी नाराज हुए थे। दोनों में तकरार शुरू हुआ। एक समय ऐसा आया कि अरविंद पांडेय ने मुख्य सचिव रहते जी.एस. कंग पर एक घोटाले के मामले में एफआईआर दर्ज कराया। यह मामला दुर्गावती जलाशय परियोजना में घोटाले से संबंधित था। सुप्रीम कोर्ट ने कंग के अलावे दो वरिष्ठ आईएएस अधिकारी वी. जयशंकर और हेमचंद सिरोही पर एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दे रखा था मगर कोर्ट का आदेश भी सरकार के फाइलों में दब गया था। अरविंद पांडेय ने जब इस मामले पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पत्र लिखा तो सरकार हरकत में आई और तीनों अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज कराया गया। इस मामले में विस्तार से बाद में कभी।

सवाल
फिलहाल चर्चा आर्म्स लाइसेंस फर्जीवाड़े की। नीतीश सरकार ने डीएम के खिलाफ इस संगीन मामले को 18 सालों तक दबाकर रखा। अब कहीं जाकर इस मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति सरकार ने दी है। सरकार के संयुक्त सचिव कार्यालय से जारी पत्र के मुताबिक, तत्कालीन जिलाधिकारी सह शस्त्र अनुज्ञापन पदाधिकारी सहरसा को अभियुक्त बनाते हुए उनके विरुद्ध भादवि की धारा 109, 419, 420, 467, 468, 471, 120 बी एवं 30 आर्म्स एक्ट के अंतर्गत अभियोजन स्वीकृति के लिए आदेश 27 अप्रैल, 2022 के माध्यम से प्राप्त हुआ है। इसके बाद आगे की कार्रवाई शुरू हुई।

इतने साल बाद कार्रवाई क्यों?

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं कि वे न किसी को बचाते हैं ना किसी को फंसाते हैं। उनकी सरकार में कैसे भ्रष्ट अफसरों को बचाया जाता है, इसका उदाहरण आए दिन देखने को मिल रहा है मगर आरएल चोंग्थू का मामला इसका सटीक उदाहरण है।
जम्मू-कश्मीर में हजारों की संख्या में अपात्र लोगों को हथियार लाइसेंस दिए जाने के बाद सीबीआई ने सभी राज्य सरकारों को ऐसे मामलों का पता लगा कर करवाई करने को कहा था। सीबीआई की चिट्ठी और राज्य सरकार द्वारा जारी निर्देश के आधार पर उस समय सहरसा के एसपी अरविंद पांडेय ने छानबीन करने के बाद इस मामले को पकड़ा और कार्रवाई की थी। लेकिन उनके अलावे किसी भी डीएम और एसपी ने ऐसे मामलों में प्रभावकारी जांच नहीं की।
मजे की बात यह है कि उनके द्वारा दर्ज कराए गए एफआईआर को सहरसा पुलिस ने फाइनल कर दिया था मगर वर्ष 2009 में उस समय के अपराध अनुसंधान विभाग के अपर महानिदेशक आनंद शंकर के निर्देश के बाद पुलिस ने न्यायालय से दोबारा केस का अनुसंधान प्रारंभ करने की अनुमति मांगी थी, जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया था। लेकिन उसके बाद मामला फिर फंस गया क्योंकि डीएम के खिलाफ अभियोजन की स्वीकृति यानी केस चलाने की मंजूरी सरकार की ओर से नहीं मिली। यही मंजूरी अब मिली है तो इसका मतलब भी लोग खूब निकाल रहे हैं। कहा जा रहा है कि भोजपुर के एसपी राकेश दुबे के बाद राजभवन के निकट माने जाने वाले आरएल चोंग्थू दूसरे अधिकारी हैं जो सरकार के निशाने पर आए हैं। बालू खनन घोटाले में निलंबित आईपीएस अधिकारी राकेश दुबे राज्यपाल फागू चौहान के ओएसडी रह चुके थे।

आरएल चोंग्थू को पोस्टिंग और प्रमोशन

सरकार मेहरबान थी इसीलिए तो केस दर्ज होने के बाद भी चोंग्थू मजे से बांका के डीएम बने रहें। यहां बता दें कि जिस समय केस दर्ज हुआ उस समय बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू था और राज्यपाल बूटा सिंह थे। बाद में जब नीतीश सरकार आई तो आरएल चोंग्थू को तरक्की देकर आयुक्त भी बनाया गया। उन्हें भागलपुर, छपरा और पटना प्रमंडल के आयुक्त पद पर आसीन किया गया। पटना प्रमंडलीय आयुक्त रहते हुए आरएल चोंग्थू पर स्मार्ट सिटी से जुड़े कई फैसले को लेकर भी उंगली उठी थी। बाद में सरकार ने उन्हें राज्यपाल का प्रधान सचिव तक बना दिया।

भ्रष्ट कुलपतियों की तरफदारी पड़ी भारी

इतने सालों के बाद एकाएक मुकदमा चलाने की राज्य सरकार द्वारा दी गई मंजूरी के बाद बिहार के सियासी और प्रशासनिक महकमें में तरह-तरह की चर्चा हो रही है। कहा जा रहा है कि विश्वविद्यालय में व्याप्त भ्रष्टाचार के संबंध में जब राज्य सरकार की एजेंसी विशेष आर्थिक निगरानी इकाई ने कार्रवाई शुरू की तो राजभवन की ओर हस्तक्षेप किया गया। खासकर मगध विश्वविद्यालय के भ्रष्ट कुलपति के खिलाफ जब निगरानी की टीम ने रेड किया तो राजभवन की ओर से प्रधान सचिव आरएल चोंग्थू ने मुख्य सचिव और अन्य अधिकारियों को चिट्ठी लिखकर राजभवन की अनुमति के बिना इस तरह की कार्रवाई करने पर आपत्ति जाहिर की। जानकार बता रहे हैं कि और कई मामलों में राजभवन के इस सबसे वरिष्ठ अधिकारी की भूमिका को लेकर राज्य सरकार की भृकुटि तन गई है। उसके कारण सरकार ने इतनी पुराने मामले की उनकी फाइल खोली है।

जदयू सांसद और राजन तिवारी के भाई समेत 229 लोगों को दिया था हथियार लाइसेंस

जानकारों की माने तो सहरसा के डीएम रहने के दौरान आरएल चोंग्थू ने 229 लोगों को हथियार का लाइसेंस दिया था। जांच के दौरान पाया गया कि जिनको हथियार का लाइसेंस दिया गया, उन लोगों का नाम-पता, पहचान कुछ भी सही नहीं था। इसके बाद 14 लोगों का लाइसेंस रद्द कर दिया गया था। आरोप है कि नियम को ताक पर रखकर बाहरी जिले के लोगों को सहरसा के फर्जी पते पर आर्म्स लाइसेंस दिए गए थे। तत्कालीन एसपी के निर्देश पर जिन 7 लोगों पर एफआईआर किया गया था इनमें ओमप्रकाश तिवारी एवं उनकी पत्नी दुर्गावती देवी, हरिओम कुमार, अभिषेक त्रिपाठी, उदयशंकर तिवारी, राजेश कुमार एवं मधुप कुमार सिंह को अभियुक्त बनाया गया था। इनमें हरिओम कुमार पूर्व सांसद सूरजभान और वर्तमान सांसद चंदन सिंह का भाई बताया जाता है जबकि उदय शंकर तिवारी के बारे में पूर्व सांसद राजन तिवारी का भाई होने की सूचना है। ओमप्रकाश तिवारी उस समय के मुख्य सचिव रैंक के अधिकारी का नजदीकी था।

इस तरह के बिहार में हजारों मामले

उस दौरान सुपौल के एक प्रमोटी एसपी और बेगूसराय जिले में एक डीएम के द्वारा भी अपात्रों को लाइसेंस दिए जाने का मामला सामने आया था मगर उसे दबा दिया गया। जानकार सूत्रों का कहना है कि गलत पते पर हथियार लाइसेंस लेने वालों की संख्या बिहार में हजारों में है। उस समय सहरसा से यह बात आई थी कि 2 लाख से लेकर 5 लाख में धड़ल्ले से आर्म्स लाइसेंस बांटे गए थे। यह रेट बिहार के कई जिलाधिकारियों ने आज तक खोल रखा है। गौतम गोस्वामी आज इस दुनिया में नहीं है मगर मुंगेर, हाजीपुर और पटना में डीएम रहते उनके द्वारा लाइसेंस बांटे जाने की चर्चा पूरे बिहार में हुई थी। आरएल चोंग्थू निशाने पर आ गए मगर उनके कार्यकाल के पहले और अभी तक बिहार के ढेरों जिलाधिकारी ज्यादातर मामलों में या तो पैरवी पर लाइसेंस देते हैं या फिर पैसे के आधार पर या पैरवी और पैसे दोनों रहने पर ही लोगों को लाइसेंस मिलता है। कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि खतरा रहने पर भी सही लोगों को लाइसेंस नहीं मिलता है, सालों तक लोग डीएम और एसपी कार्यालय की दौड़ लगाते हैं लेकिन उन्हें निराशा मिलती है। कई जानकारों का दावा है कि बिहार के हथियार लाइसेंस धारियों के आवासीय पते की जांच हो तो बड़ी संख्या में आवेदन में दिए गए पतों पर लोग नहीं मिलेंगे लेकिन उन्हें पैरवी और पैसे के आधार पर लाइसेंस मिल गए।

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