गौरवशाली प्राचीन बिहार ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से न केवल भारत का बल्कि दुनिया का मस्तक रहा है। राज्य भर में ऐसे अनेकों धरोहर, स्मारक व प्रतीक चिन्ह मौजूद हैं जो इसके गौरवशाली अतीत की कहानी कहते हैं।
शिव शंकर सिंह पारिजात, उप जनसंपर्क निदेशक (अवकाश प्राप्त), सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, बिहार सरकार।
NewsNLive आज से एक श्रृंखला शुरू करने जा रहा है जिसके तहत हर सप्ताह एक विशेष आलेख प्रस्तुत की जाएगी इससे आपको पता चलेगा कि क्यों देश और दुनिया का गौरव था बिहार।
तो इस कड़ी में सर्वप्रथम चर्चा ज्ञान एवं शिक्षा के क्षेत्र में बिहार के योगदान की, जिसके अंतर्गत हम बात करेंगे विक्रमशिला बौद्ध महाविहार की।
गुप्तकाल में सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने 415-454 ई. में बिहार में नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की थी जहां पढ़ाई के लिए जावा, चीन, तिब्बत, श्रीलंका और कोरिया से छात्र आते थे। इतिहास में नालन्दा विश्वविद्यालय का अपना एक मुक़ाम है। इसके क़रीब साढ़े तीन सौ साल बाद यानी आठवीं शताब्दी में राजा धर्मपाल ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की जो भागलपुर जिले के अंतीचक गांव में था जिसके पुरावशेष आज भी पुरातन गौरव-गाथा को बयां कर रहे हैं।
विक्रमशिला बौद्ध महाविहार को यदि आधुनिक युग का ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां की शिक्षा के उच्च स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां प्रवेश पाना न सिर्फ विदेशी बल्कि भारतीय छात्रों के लिए भी बेहद कठिन होता था। छात्रों को यहां के विद्वान पंडितों की कठिन कसौटी पर ख़रा उतरना होता था।
विक्रमशिला की स्थापना पाल-वंश के राजा गोपाल के पुत्र धर्मपाल ने आठवीं शताब्दी में की थी। बौद्ध धर्म के प्रबल अनुयायी धर्मपाल ने विक्रमशिला विहार के केन्द्र में 108 मंदिरों के बीच एक विशाल मंदिर बनवाया था जहां शिक्षा देने का भी काम चलता था। इस काम के लिए वहां 100 से अधिक आचार्य और 1000 से ज़्यादा विद्यार्थी थे जिनके आवासन और भोजन की उत्तम व्यवस्था थी। इतिहासकार प्रो.राधाकृष्ण चौधरी ने विक्रमशिला में आचार्यों की संख्या 160 और स्थानीय तथा बाहर से आए छात्रों की संख्या क़रीब 10,000 बताई है। विक्रमशिला बौद्ध महाविहार स्थापना से क़रीब चार शताब्दियों तक धर्म और आध्यात्म के मामले में पूरब के एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक केन्द्र के रूप माने जाने लगा था जिसकी ख्याति न केवल भारत बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया, ख़ासकर तिब्बत तक फैल चुकी थी जहां से बड़ी संख्या में छात्र यहां पढ़ने आते थे।
विहार का मुख्य सभागार विज्ञान-कक्ष कहलाता था जिसमें छह शाखाएं या महाविद्यालय थे जहां महायान, तंत्र-मंत्र, योग, काव्य, व्याकरण, न्याय आदि विधाओं में ज्ञान प्राप्त कर स्नान
कर स्नातक बनते थे तब। ज्ञान सरिता पार कर पारंगत होते थे। इन महाविद्यालयों के द्वारों पर उद्भट विद्वानगण द्वार-पंडित के रूप में नियुक्त थे जो प्रवेशार्थी छात्रों की परीक्षा लेते थे जिसमें उत्तीर्ण होने पर ही महाविहार में दाख़िला मिलता था।
विक्रमशिला हमेशा से ही पाल राजाओं के क़रीब रहा और यही वजह है कि वह नालंदा, सोमपुरा व ओदंतपुरी महाविद्यालयों की तुलना में यह हमेशा अच्छी स्थिति में रहा। राजा ही इस महाविहार के चांसलर हुआ करते थे और पंडितों व अन्य आचार्यों की नियुक्ति सहित दीक्षांत समारोह में उपाधियां भी वितरित करते थे।
राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय ख्याति वाले इस विश्वविद्यालय का तिब्बत के साथ ख़ास संबंध था। तिब्बती छात्रों के लिये यहां अलग से छात्रावास की व्यवस्था थी जिसके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। चीनी दस्तावेज़ों में जिस शानदार तरीक़े से नालंदा महाविहार की चर्चा की गयी है, उसी अंदाज़ में तिब्बतियों ने अपने ग्रंथों में विक्रमशिला का ज़िक्र किया है। नालंदा के काल में चीन और भारत के बीच गहरे सांस्कृतिक संबंध थे जो 8 वीं शताब्दी के मध्य में विक्रमशिला का काल आते-आते तिब्बत की तरफ़ मुड़ गए। जिस तरह आज के विश्वविद्यालयों के संचालन के लिए परिषद या सीनेट होती है, वैसे ही तब भी शैक्षणिक गतिविधियों के संचालन के लिए शिक्षकों का एक बोर्ड होता था।
उच्च स्तर की पढ़ाई-लिखाई के कारण अपने समय में विक्रमशिला देश के सांस्कृतिक तथा बौद्ध-ज्ञान का प्रमुख केन्द्र बन गया था। यहां दूर दराज़ से विद्वान जमा होते थे और शैक्षिक एवं दार्शनिक विषयों पर चर्चा करते थे। यहां का पाठ्यक्रम एक बौद्ध विश्वविद्यालय की आवश्यकताओं के अनुसार था।
बुद्ध ज्ञानपद विक्रमशिला के संस्थापक शिक्षक थे।
वारेन्द्र के जेतारी, कश्मीर के रत्नव्रज और शाक्यश्री, बनारस के बागीश्वर, नालंदा के वीरोचन, ओदंतपुरी के रत्नाकर यहां के प्रतिष्ठित आचार्य थे। विक्रमशिला के विद्वानों की मंडली में आचार्य दीपंकर सबसे बड़े विद्वान माने जाते थे जिन्हें भारत में उन्हें बौद्ध धर्म का अंतिम प्रमुख आचार्य माना जाता है। तिब्बत के राजा के आमंत्रण पर उन्होंने 13 साल तक वहां रहकर बौद्ध धर्म में त्रुटियों को सुधारने और घर्म के पुर्नस्थापन का काम किया और इसी कारण बौद्ध धर्म के इतिहास में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। तिब्बत में वे बुद्ध के दूसरे अवतार के रूप में पूजे जाते हैं।
विक्रमशिला की मान्यता मंत्रयान के एक प्रमुख केन्द्र के रूप में रही है। इतिहासकार ए.एल. बासम का मानना है कि 8 वीं शताब्दी में पूर्वी भारत में वज्रयान के नाम से एक तीसरे ’यान’ का जन्म हुआ जिसे बेहतर रुप में बौद्ध महाविहार विक्रमशिला के आचार्यों ने तिब्बत में स्थापित किया। धर्म और शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के साथ-साथ विक्रमशिला ने स्थापत्य और मूर्तिकला के क्षेत्र में भी अपनी ख़ास पहचान बनायी जो पूर्वी भारत की ’मगध-बंग शैली’ के नाम से जानी जाती है। नालंदा की तरह यहां भी पाण्डुलिपि-चित्रण के विशिष्ट प्रतीक विकसित हुए। यहां अनुवाद का काम भी बड़े पैमाने पर होता था। यहां पाण्डुलिपियों को विशेष पद्धति से वातानुकूलित पुस्तकालय में सहेज कर रखा जाता था।
आठवीं शताब्दी में अपनी स्थापना के बाद क़रीब चार सौ वर्षों तक धर्म, आध्यात्म और ज्ञान के क्षितिज पर अप्रतिम ज्योति बिखेरने वाला यह महाविहार पूर्वी भारत में मोनास्टिक यूनिवर्सिटी का अंतिम उत्कृष्ट उदाहरण था। लेकिन विडंबना ये है कि 12 वीं शताब्दी के अंत में तुर्कों के आक्रमण से ये पूरी तरह नष्ट हो गया। क़रीब 800 वर्षों तक के लंबे अंतराल तक उपेक्षित पड़े रहने के बाद 1960 से 1969 तक पटना विश्वविद्यालय के डॉ.बीपी वर्मा और उसके बाद 1971-72 से लेकर 1982 तक की अवधि में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) के निदेशक डॉ.बी.एस. वर्मा के नेतृत्त्व में की गई खुदाई के बाद ही पूरी दुनिया के समक्ष इसका अस्तित्व सामने आया। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने पांच साल पूर्व विक्रमशिला के नाम पर केंद्रीय विश्वविद्यालय की घोषणा की थी, जिसका अस्तित्व में आना अभी बाकी है।
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